हर मर्ज की दवा है ड्रैगन फ्रूट
विश्वविख्यात दार्जिलिंग फोर टी के लिए मशहूर है। फोर टी यानि टिंबर, टी, ट्रेड और टूरिस्म । दार्जिलिंग जिले का नक्सलबाड़ी जो कभी नक्सल आंदोलन के लिए मशहूर था । 60 के दशक में यहां नक्सल पंथियों द्वारा व्यापक खूनी संघर्ष हुआ था । यूं कहे तो नक्सल नेता चारू मजमुदार के नेतृत्व में यहीं से नक्सलवाद की शुरुआत हुई थी। यह भी इतिहास के पन्नों में दर्ज है। यह वही क्षेत्र है, जहां से सैकड़ों आदिवासी मजदूर अपने हक व अधिकारों के लिए हथियार उठाए थे ,लेकिन आज उसी नक्सलबाड़ी में विदेशी मूल का कैक्टस प्रजाति का ड्रैगंस फ्रूट्स अपने सुगंध बिखेर रहा है । नक्सलबाड़ी का हथीघिसा क्षेत्र इन दिनों कैक्टस प्रजाति के ड्रैगन फ्रूट की खेती को लेकर संजीदा दिख रहा है। यहां के आदिवासी किसान ड्रैगन फ्रूट की खेती कर धन का उपार्जन कर रहे हैं । उनके इस कार्य में उत्तर बंगाल विश्वविद्यालय का Centre of floriculture and agriculture management (COFAM) यूनिट की ओर से भी मदद मिल रही है। हाथिघिसा के किसान अशोक दे बताते है कि वह विगत 5 साल से इसकी खेती करते आ रहे है। उनकी तरह अन्य आदिवासी किसान भी इसकी खेती कर रहे है। इसकी खेती की सबसे बड़ी खासियत यह है कि इसे अधिक सिंचाई व खाद की जरूरत नहीं होती है। इसके पौधे को एक बार लगाने के बाद यह करीब 25 से 30 सालों तक फल देता रहता है। इसके लिए किसान को ज्यादा कुछ नहीं बल्कि अपने खेतों में कुछ पिलर खड़े करने होते हैं और उन पिलर के आसपास इन पौधों को लगानी होती है ।उस पिलर के सहारे अपने आप को इसके पौधे अपने को विकसित करते हैं तथा महज डेढ़ से 2 साल के भीतर फल देने लगते हैं । एक बार फल देने की शुरुआत के साथ ही यह बरसों बरसों तक सेवा देते रहते हैं। उत्तर बंगाल विश्व विद्यालय के कोफाम यूनिट के अमरेंद्र पांडे बताते हैं कि यह पौधा कोरियाई देशों से यहां आया है। समय के साथ इसकी खेती भारत के पूर्वोत्तर क्षेत्र व नेपाल, भूटान व बिहार के कुछ हिस्सों में तेजी से अपना प्रभाव छोड़ा है। काफी संख्या में किसान उनके पास आ रहे हैं तथा COFAM के सहयोग से खेती कर रहे हैं । बकायदा इसके लिए बाजार भी है । वर्तमान समय में प्रति किलो ढाई से तीन सौ रुपये किलोग्राम की दर से बाजार में बिक रहे हैं । किसान इसे अपने यहां से डेढ़ सौ से दो सौ रुपये प्रति किलो की दर से देते हैं । इस पौधे की सबसे अहम खासियत यह है कि यहां एक बार लगाने से ही 25 से 30 साल तक फलन होता रहता है। साथ ही इसकी देखभाल वह खेती काफी आसान है। इसमें लागत भी काफी सीमित है जबकि मुनाफा साल दर साल यह देते रहता है। श्री पांडे कहते हैं कि इस फल में काफी पोषक तत्व होने के साथ ही यह कई रोगों में कारगर सिद्ध हो रहा है। इसमें प्रोटीन, एनर्जी, कार्बोहाइड्रेट और शुगर जैसे पोषक तत्व तथा कैल्शियम आयरन, मैग्नीशियम, सोडियम जैसे मिनरल के साथ ही Anti-Oxidant , फ्लेवोनॉयड, फेनोलिक एसिड, एस्क्कारबिक एसिड जैसे तत्व मौजूद हैं। शुगर को नियंत्रित करने ,हार्ट की बीमारियों को नियंत्रित करने, वजन घटाने, पेट संबंधी समस्या, गठिया तथा यह इम्युनिटी सिस्टम को बढ़ाने वाला है। कई तरह के खनिज पदार्थों से भरपूर होने के साथ ही फाइबर युक्त है। इसमें कैंसर जैसे बीमारियों से लड़ने की क्षमता है तो शुगर के मरीजों के लिए भी यह रामबाण सिद्ध हो रहा है। यही वजह है कि बाजार में इसकी मांग के अनरूप लोग उत्पादन पर जोर दे रहे हैं। इसके पौधे यानी चारा ₹100 से ₹150 की दर से बिक जाते हैं। इस पौधे की डाली का ही इस्तेमाल उसकी बीज के रूप में किया जाता है। इसलिए एक बार यदि किसान इसकी खेती कर ले तो उन्हें अन्यत्र से बीज या डाली लाने की आवश्यकता नहीं होती है। तकनीकी तौर पर उत्तर बंगाल विश्वविद्यालय की COFAM शाखा किसानों की मदद कर रही है तथा उनका मार्गदर्शन कर रही है। उन्हें उम्मीद है कि एक दिन यह लीची, आम, सेव ,अमरुद, संतरा जैसे फलों की सूची में शामिल होगा और लोग इसकी बढ़-चढ़कर खेती करेंगे। इससे किसानों की आर्थिक सेहत भी निश्चित रूप से सुधरेगी। आज जब किसानों की आर्थिक स्थिति खराब होने के कारण उन्हें कर्ज से दबकर आत्महत्या करने जैसे उपाय या कदम उठाने पड़ रहे हैं तो ऐसे में ड्रैगन फ्रूट्स की खेती की नई प्रणाली किसानों को निश्चित रूप से एक नई राह प्रदान करेगी। COFAM का भी प्रयास है कि भारत के संकटग्रस्त किसानों को इस तरह के खेती के जरिए उबारा जाए। उनका यह भी कहना है कि एक पौधे से करीब साल में 15 से 20 किलो फल होते हैं। यदि कोई किसान एक एकड़ जमीन में इसकी खेती कर ले तो उसे साल में चार से पांच लाख रुपए की आमदनी आसानी से हो सकती है। इससे समझा जा सकता है कि इसकी खेती भारत के उन किसानों के लिए कितना मायने रखता है, जो आज की अव्यवस्था व आर्थिक कठिनाई की मार झेल रहे हैं। इसकी एक सबसे बड़ी खासियत यह है कि इसके सिंचाई में कोई खर्च नहीं है। साथ ही इसमें रासायनिक खाद का बिल्कुल भी इस्तेमाल नहीं है। इसमें खाद के रूप में गोबर का खाद का ही इस्तेमाल किया जाता है ,इसलिए यह स्वास्थ्य सम्मत है।
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